अकबर ने कवि गंग से कहा कि आप एक ऐसा सवैया बनाओ जिसमें रति शब्द का प्रयोग हो….
रति बिना राज, रति बिना काज…रति बिना छाजत, छत्र न टीको…..रति बिन मात, रति बिन तात, रति बिन होत ना जोग जति को….रति बिन साधु, रति बिन संत, रति बिन मानस लागत फीको……………………….. …. कवि गंग कहे सुन शाहे मूर्ख,, नर एक रति बिन, एक रति को………….. इस छप्पय में कवि गंग ने अकबर को मूर्ख कहा और कवि गंग कहते हैं की इंसान की कोई औकात नहीं है.. समय ही सब कुछ है…
चंचल नारी का नैन छिपे नहीं
तारा की ओट में चांद छिपे नहीं ,भानु छिपे नहीं घण बादल छायां,,राड मच्यां रजपूत छिपे नहीं ,दातार छिपे नहीं घर मंगत आयाँ…चंचल नारी का नैन छिपे नहीं , प्रीत छीपे नहीं पीठ दिखायाँ…..जोगी का भेष अनेक करो तो ही ,कर्म छिपे नहीं भभूत लगायाँ……
अब्दुल रहीम खानखाना अकबर के सेनापति थे और उन्होंने नियम बना रखा था कि प्रतिवर्ष अपनी संपूर्ण आमदनी गरीबों में बांट देते थे… कवि गंग ने उनको एक दोहा भेजा जिसमें उन्होंने पूछा कि आदमी जब देता है तो उसमें अहंकार होता है…आप देते हो तो विनम्रता के कारण आंखें नीची क्यों कर लेते हो?
सवाल कवि गंग का….
बुजू में नवाब से कहां से सीखी, ऐसी देनी देन..ज्यों ज्यों कर ऊंचो कीयो….त्यों त्यों नीचे नैन….
रहीम जी का जवाब …
देनहार कोई और है भेजत सो दिन रैन… लोग भरम हम पर करे, याते नीचे नैन….. रहीम जी ने कहा की देने वाला ईश्वर है, जब तक वो देता रहेगा तब तक मैं देता रहूँगा.. लोग भ्रम कर रहे हैं की मैं दे रहा हूँ.. इस शर्म मैं मेरी आँखे नीचे हो गयी है…
गंग ने नीति संबंधी दोहे लिखे मगर कवि गंग पैसों की अहमियत से भी पूर्णतया परिचित थे और उन्होंने एक सवैया लिखा है;
माता कहे मेरो पूत सपूत ,बहिन कहे मेरो सुंदर भैयो….बाप कहे मेरे कुल को दीपक, लोक लाज मेरी को है रखाइयो…नारी कहे मेरे प्राण पति है, उनकी लूँ मैं निश दिन ही बलैईया…कवि गंग कहे सुन शाहे अकबर, गांठ में है जिनके सफेद रुपैया…..
ठननम ठननम ठह क्यों ठेहका…..
अकबर ने एक बार गंग से कहा की आज बेगम मेरे लिए खाना लेकर आई और उदास बैठी रही… वो उदास क्यों थी… अकबर ने यह भी कहा की बेगम जब आ रही थी तब ठनठन की आवाज भी आ रही थी…. अब गंग की कल्पना और साहित्य बोध देखो:
करके श्रृंगार जो अटारी चढ़ी, मन लालन सूं हियरा लेहकियो…सब अंग सुभाष सुगंध लगाय के…बाँस चहुँ दिशन को मेहकियो….करत ही एक कंगन छूट परियो, सीढ़ियाँ सीढ़ियाँ सीढ़ियाँ लेहकियो……. कवि गंग कहे एक शब्द भयो, ठननम ठननम ठह क्यूँ ठहकियो…
गंग ने कहा की आपकी बेगम श्रृंगार करके सीढ़ियों से चढ़ रही थी.. मन प्रफुल्लित था.. सब अंगों से और हर तरफ से सुगन्ध आ रही थी… विचारों में मगन आपकी बेगम के हाथ का एक कंगन हाथ से छूटकर सीढ़ियों पर लुढ़कने लगा.. तब कवि गंग ने कहा की यह शब्द बना.. ठननम ठननम ठह क्यों………
अकबर पर रचना
अकबर ने गंग से कहा कि आप एक ऐसी रचना बनाओ जिसमें अकबर शब्द का प्रयोग हो… कवि गंग को यह बात चुभ गयी और लिखा:
अब तो गुनिया दुनिया को भजे…सिर बाँधत पोट अकबर की….. कवि गंग तो एक गोविंद भजे,इक शंकन ना मानत जब्बर की…. जिनको हरि की प्रतीति नहीं… वो आश करो अकबर की……..